ब्राजील ने अभी रियो ओलंपिक की मेजबानी की तैयारियों को ठीक से शुरु भी ना किया होगा कि भारत में खिलाड़ियों ने ओलंपिक मेडलों को हासिल करने के लिए अपनी तैयारियां शुरु कर दी थीं। इस बार का भारत से जाने वाला ओलंपिक दल भी बड़ा भारी भरकम था। ओलंपिक में देश के लिए एकमात्र गोल्ड जीतने वाले अभिनव बिंद्रा तो थे ही, सानिया मिर्जा, लिएंडर पेस, सानिया नेहवाल, नरसिंह यादव जैसे कई खिलाड़ी थे जिन से भारत को काफी उम्मीदें थीं। लेकिन जैसे जैसे ओलंपिक खेलों के खत्म होने की तारीख नजदीक आते जा रही है, भारतीय खिलाड़ियों से पदकों की उम्मीद भी धूमिल होते जा रही है। अभिनव बिंद्रा भी जिनसे पूरे भारत को कम से कम एक मेडल की आस थी, पदक तालिका में जगह नहीं बना सके।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर क्या वजह है कि भारत परीक्षा की ऐसी घड़ियों में फेल हो जाता है? अब सवाल है तो जवाब भी तलाशने होंगे। देश में बीजेपी की सरकार है। भारतीय ओलंपिक दल के रियो रवाना होने से पहले प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात भी हुई थी। काफी जोश खरोश के साथ टीम को रवाना किया गया था। लेकिन शायद सारा जोश हवा हवाई हो गया। भारतीय टीम के सारे सूरमा एक एक कर धराशायी होते गए। और रही बात पदकों की…तो पदकों की उम्मीदें भी धूमिल होती गई।
भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश प्रवक्ता अनिला सिंह का मानना है कि ऐसा इसलिए हुआ कि हमारे देश में खेलों को जो तवज्जो मिलनी चाहिए, वह मिल नहीं पाती। खिलाड़ी लगातार प्रशिक्षकों, सुविधाओं और तैयारियों का रोना रहते हैं। ऐसे में खिलाड़ियों का मनोबल कम हो जाता है। देश में क्रिकेट को छोड़ किसी खेल के बारे ज्यादा बात नहीं होती। ओलंपिक खेलों में हमारी स्थिति ने यह सोचने को मजबूर किया है कि आखिर हम खेलों में कब आगे बनेंगे?
यह सच है कि 2016 रियो ओलंपिक में भारत को अभी तक एक भी मेडल नहीं मिला है। आसार अब इसी बात के हैं कि पिछली बार के मुकाबले हमें कम मेडलों से संतोष करना पड़ेगा। निशानेबाजी में अब तक मिली नाकामी निराश करती है। तीरंदाजी में भी जिस तरह के नतीजे आने चाहिए थे, वो नहीं आए। लोग तंज कसने से बाज नहीं आए। सेलीब्रिटी लेखक शोभा डे ने ट्वीट किया…
हालांकि मैडम शोभा डे को नेटीजन से तत्काल जवाब मिल गया। फिर भी इस सवाल के जवाब तलाशने होंगे कि आखिर क्या वजह है कि भारत को अक्सर निराश ही हाथ लगती है? अचरच की बात यह है कि भारतीय ओलंपिक दल के बुरे प्रदर्शन से उपजे सवालों के जवाबों को तलाशने की कोशिश चीन में भी हुई है।
चीन की मीडिया ने खोज खोज कर कुछ ऐसे कारण निकाले हैं, जिनके अनुसार भारत को रियों ओलंपिक में मुंह की खानी पड़ी है। बुनियादी सुविधाओं की कमी, खराब स्वास्थ्य, गरीबी, लड़कियों को खेलने की इजाजत न होना, लड़कों पर डॉक्टर और इंजीनियर बनने के लिए ज्यादा दबाव, दूसरे खेलों के बजाय क्रिकेट की ज्यादा लोकप्रियता, हॉकी में भारत का गिरता प्रदर्शन और ग्रामीण इलाकों में ओलिंपिक की जानकारी का अभाव ऐसी वजहें जो हमारे प्रदर्शन को कमजोर बनाती हैं। वेबसाइट Toutiao.com पर पब्लिश एक आर्टिकल के मुताबिक भारत की जनसंख्या 120 करोड़ है और चीन के बाद यह दुनिया का दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है। लेकिन, ओलिंपिक खेलों में भारत बहुत ही कम मेडल हासिल करता है। क्यों? जनसंख्या के सापेक्ष ओलिंपिक मेडल सूची में नीचे रहने वाले भारत ने 2012 ओलिंपिक में छह मेडल हासिल किए थे, जिनमें एक भी गोल्ड नहीं था। गुरुवार तक भारतीय खिलाड़ी रियो में एक भी मेडल नहीं जीत पाए थे।
देखा जाए तो चीनी मीडिया का यह आकलन सही भी है। पिछले तीन ओलिंपिक (2004 एथेंस, 2008 पेइचिंग, 2012 लंदन) देखें तो भारत ने अपनी जनसंख्या के लिहाज से जितने मेडल जीते हैं, वह उस हिसाब से लिस्ट में आखिरी नंबर पर आता है। हमारे देश में अमीर और गरीब के बीच खाई दिन पर दिन बढ़ते जा रही है। इस की वजह से गरीबों की जीने और खेल के लिए ऊर्जा बचाने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। देश की सरकारें भी खेलकूद की बुनियादी सुविधाओं पर बहुत कम खर्च करती है। ऐसे में बड़े और प्रतिस्पर्धात्मक खेल दोनों में ही भारत के खिलाड़ी पिछड़ते जा रहे हैं।
सचिन तेंदुलकर की कही हुई एक बात मुझे याद आती है “कोई भी खिलाड़ी कभी हारने के लिए मैदान में नहीं उतरता। मैं हर बार अच्छा करने की सोच कर खेलने जाता हूं, लेकिन मेरा सोचा यदि हो जाता तो मेरे शतकों की संख्या बहुत ज्यादा हो सकती थी। इसलिए हार और जीत खेल का एक हिस्सा है। हर खिलाड़ी को बिना निराश हुए अपने प्रदर्शन को निरंतर सुधारने की जरूरत होती है।”
बात भी सही है खिलाड़ी की खेल भावना कभी खत्म नहीं होनी चाहिए। हारने वाले ही सफलता का स्वाद चखते हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है हमारा समाज खेलों को कितने खुले दिल से गले लगाता है। ओलंपिक में हमारा खिलाड़ी मेडल लाए तो अच्छा लगता है। और यदि मेडल ना जीत पाए तो निराशा होती है। लेकिन कितने मां बाप हैं जो अपने बच्चों को खेलों में करियर बनाने की सलाह देते हैं या फिर बढ़ावा देते हैं। दिक्कत इसी वजह से है। दूसरे का बच्चा खेलों में जाए तो अच्छा लगता है, लेकिन अपने बच्चे को हम डॉक्टर बनाएंगे या इंजीनियर बनाएंगे। एक रिसर्च में भी यह बात सामने आई थी कि जब शोधकर्ताओं ने कर्नाटक और राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में सर्वे किया तो उन्होंने ग्रामीणों से पिछले एक दशक में सुनी सबसे अच्छी नौकरी के बारे में पूछा। राजस्थान में 300 से ज्यादा ग्रामीणों के जवाबों में सॉफ्टवेयर इंजिनियर, आर्किटेक्चर इंजिनयर, डॉक्टर और वकील का जिक्र था। कुछ ग्रामीणों ने टीचर और सैनिक बनने को सबसे अच्छा बताया। कर्नाटक की अर्थव्यवस्था बेहतर होने के बावजूद वहां के जवाबों में राजस्थान से कोई खास अंतर नहीं था। तो इन आंकड़ों से सारी बातें सामने आ जाती हैं।
संदेश स्पष्ट है हमें खेलों के प्रति नजरिया बदलना होगा। वरना हमारे पास सिर्फ जोश ही रहेगा। हम ऐसे ही खेलों की प्रतियोगिताओं में खाली हाथ घर लौटते रहेंगे। क्रिकेट के अलावे भी हमें अन्य खेलों के लिए खिलाड़ियों को तैयार करना होगा। उन्हें सहूलियतों और सरकारी प्रोत्साहनों की जरुरत होगी तो सरकार को इसके लिए भी खुले दिल से करने को तैयार रहना होगा। सबसे बड़ी बात हमें खेलों को कमतर आंकने की सोच खत्म करनी होगी। खेल हमारे जीवन शैली का हिस्सा बनें। ना सिर्फ क्रिकेट बल्कि हर खेल हमारे लिए करियर का एक अच्छा चुनाव हो , ऐसी नीतियां बनानी होंगी। शायद तभी हमारी झोली हर ओलंपिक से भरी हुई लौटे।